स्कूल बंद हुए तो घरों की दीवारों पर बना दिया ब्लैक बोर्ड; बच्चों के साथ उनके पेरेंट्स भी पढ़ रहे, UNICEF ने की तारीफ
नई दिल्ली, जोबा अटपारा, पश्चिम बंगाल के पश्चिम बर्धमान जिले का एक ट्राइबल गांव। ज्यादातर लोग गरीब हैं, पढ़े-लिखे नहीं हैं। दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो जाए, इससे ज्यादा की हसरत भी नहीं, लेकिन अब यहां की तस्वीर बदल गई है। ये गांव अपनी नई कहानी लिख रहा है, देश-दुनिया में सुर्खियां बटोर रहा है। आपको यहां करीब हर घर की दीवारों पर खूबसूरत और क्रिएटिव ब्लैक बोर्ड देखने को मिलेंगे। इन पर पेंटिंग के जरिए फलों के नाम, गिनती, वर्णमाला आदि उकेरे गए हैं। नीचे बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं, साथ में उनके माता-पिता भी पढ़ रहे हैं। बंगाली, हिंदी के साथ अंग्रेजी भी बोलने में भी कोई झिझक नहीं है। खास बात यह है कि बच्चे खुद ही अपने माता-पिता को पढ़ा रहे हैं।
ये अनोखी पहल की है आसनसोल के रहने वाले दीप नारायण नायक ने। उन्होंने पश्चिम बर्धमान जिले के 12 गांवों में लोगों की घरों की दीवारों को ब्लैक बोर्ड में बदल दिया है। जहां 1 हजार से ज्यादा बच्चे और उनके माता-पिता पढ़ाई कर रहे हैं। वे इन बच्चों को पढ़ाने के साथ ही कॉपी, किताब और जरूरी चीजें भी प्रोवाइड करा रहे हैं। इसके लिए नेशनल और इंटरनेशनल लेवल पर उनकी तारीफ भी हो रही है। कई सम्मान भी उन्हें मिले हैं। दीवारों पर उकेरी गई उनकी तस्वीर को UNICEF ने फोटो ऑफ द ईयर कंटेस्ट में सेकेंड प्राइज दिया है।
35 साल के दीप नारायण नायक ने फार्मेसी और B.Ed की पढ़ाई की है। लंबे वक्त तक उन्होंने फार्मेसी सेक्टर में काम किया, अस्पतालों में काम किया। इसके बाद वे एजुकेशन सेक्टर से जुड़ गए। एक प्राइमरी सरकारी स्कूल में उनकी नौकरी लग गई। इसके बाद वे बच्चों को पढ़ाने लगे।
स्कूल बंद थे, घर में पढ़ाई के लिए बच्चों के पास साधन नहीं थे
दीप नारायण कहते हैं कि यहां की ज्यादातर आबादी ट्राइबल है। स्कूल होने के बाद भी बहुत कम बच्चे ही स्कूल जा पाते हैं। पिछले साल जब कोविड के चलते लॉकडाउन लगा तो इन बच्चों की पढ़ाई पूरी तरह ठप हो गई। न घर में उन्हें कोई पढ़ाने वाला था न ही उनके पास पढ़ाई के लिए कोई साधन उपलब्ध था। वे दिनभर इधर-उधर भटकते रहते थे। मुझे लगा कि अगर ऐसा ही रहा तो इनका फ्यूचर ही तबाह हो जाएगा। एक शिक्षक के रूप में मेरा दायित्व बनाता था कि इन बच्चों के लिए कुछ किया जाए।
वे कहते हैं कि मार्च-अप्रैल 2020 की बात है। मैं अपने पास के दो बच्चों को बुलाया और उन्हें नियमित रूप से गांव में ही एक पेड़ के नीचे पढ़ाना शुरू किया। उनके घर के लोग इससे खुश नहीं हुए, क्योंकि वे चाहते थे कि उनके बच्चे पढ़ने की बजाय कुछ काम करें, मजदूरी करें ताकि कुछ आमदनी हो। खैर बहुत समझाने के बाद जैसे-तैसे उनके पेरेंट्स राजी हो गए। इसके बाद बच्चों की संख्या बढ़ने लगी। दूसरे लोग भी अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए दीप नारायण के पास भेजने लगे।
दीप नारायण कहते हैं कि मैं बच्चों को दिनभर पढ़ाता था, कॉपी-किताब और जरूरी चीजें भी खुद ही प्रोवाइड कराता था। एक दिन पेड़ के नीचे मैं पढ़ा रहा था तो एक बच्चे को किसी कीड़े ने काट दिया। वह बच्चा काफी देर तक रोता रहा। उसके बाद मेरे मन में यह आशंका होने लगी कि यदि कल को इन बच्चों में से किसी को सांप डस ले तो… फिर मैं इन बच्चों को गांव में ही एक घर के बाहर पढ़ाने लगा। खैर यह भी प्रयोग सफल नहीं हुआ। क्योंकि यहां बच्चों की संख्या ज्यादा हो गई और कोविड प्रोटोकॉल को फॉलो करना मुश्किल हो गया। प्रशासन की तरफ से भी कहा गया कि प्रोटोकॉल मेंटेन करिए।
वे कहते हैं कि किसी भी कीमत पर मैं पढ़ाई का काम बंद नहीं करना चाहता था। साथ ही इन बच्चों के लाइफ को जोखिम में भी नहीं डालना चाहता था। इसके बाद मेरे दिमाग में ख्याल आया कि जैसे चुनावों में वॉल पेंटिंग की जाती है, उसी तरह यहां भी दीवारों पर पेंटिंग के जरिए ब्लैक बोर्ड बनाया जा सकता है। वर्णमाला, गिनती जैसी जरूरी चीजें दीवारों पर उकेरी जा सकती हैं, जिससे कि बच्चे खुद से भी पढ़ाई कर सकें। फिर क्या था उन्होंने मिट्टी से बने कुछ घरों की दीवारों पर पेंट से ब्लैक बोर्ड बना दिए।
बच्चों को भी यह पहल काफी पसंद आई। उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी। इसके बाद दीप नारायण ने इस मुहिम को आगे बढ़ाना शुरू किया और एक के बाद एक कई घरों को ब्लैक बोर्ड के रूप में बदल दिया। कुछ मीडिया में उनके बारे में खबर छपी तो उन्हें कई लोगों ने सुझाव दिया कि इस काम को और आगे बढ़ाना चाहिए। इसके बाद उन्होंने दूसरे गांवों में भी यही मुहिम शुरू कर दी। देखते ही देखते कुछ ही महीनों में एक दर्जन गांवों में घरों की दीवारों पर ब्लैक बोर्ड बन गया और बच्चों का स्कूल लगने लगा।
सुबह से शाम तक एक गांव से दूसरे गांव पढ़ाने में गुजर जाता है वक्त
दीप नारायण के साथ अभी 12 गांवों के करीब एक हजार से ज्यादा बच्चे जुड़े हैं। बड़ी संख्या में इन बच्चों के माता-पिता भी पढ़ने आते हैं। यानी करीब 2 हजार लोगों को वे एजुकेशन से जोड़े हुए हैं। वे कहते हैं कि टीचर के लेवल पर मैं अकेला हूं, लेकिन पढ़ाई का मॉडल मैंने ऐसा रखा है कि हर सेंटर पर बच्चों की पढ़ाई हो सके। मैं रोज सुबह 9 बजे से शाम के 6 बजे तक बच्चों को पढ़ाता हूं।
रोज तीन से चार गांवों में जाता हूं। इस तरह हफ्ते में दो से तीन दिन हर गांव में मेरा जाना होता ही है। एक बार सेंटर पर जाने के बाद दो से तीन दिन का होम वर्क दे देता हूं। जिस दिन मैं सेंटर पर नहीं होता हूं, वहां के सीनियर बच्चे ही एक दूसरे को पढ़ाते हैं। इतना ही नहीं बच्चे अपने घर की दीवारों को देख कर खुद भी पढ़ाई करते रहते हैं। इस तरह पढ़ाई कभी ब्रेक नहीं होती है।
यहां बच्चे ही अपने माता-पिता को पढ़ाते हैं
भास्कर से बात करते हुए दीपनारायण कहते हैं कि सिर्फ बच्चों को पढ़ाने से तस्वीर नहीं बदलेगी। बच्चों के साथ-साथ उनके माता को भी पढ़ाना जरूरी है, ताकि वे अपना नाम-पता लिख सकें। इससे आगे बढ़कर वे एजुकेशन की वैल्यू समझ सकें। हमें ज्यादातर घरों में यह देखने को मिलता था कि बच्चों के माता-पिता चाहते थे कि स्कूल जाने या पढ़ाई करने की बजाय उनका बेटा-बेटी कुछ काम करे, ताकि घर परिवार का खर्च निकल सके, इसलिए हमने बच्चों के साथ ही उनके माता-पिता को भी इस मुहिम से जोड़ा।
वे कहते हैं कि हमारे यहां अभी ज्यादातर बच्चे 5वीं से 10वीं तक के हैं। इन बच्चों को मैं तो पढ़ाता ही हूं साथ ही ये आपस में भी एक दूसरे को पढ़ाते हैं। इसके बाद ये बच्चे ही अपने माता-पिता को भी पढ़ाते हैं। बच्चों की तरह ही उन्हें हम किताब-कॉपी प्रोवाइड कराते हैं और रेगुलर होमवर्क भी करना होता है। वे लोग अपने खेतों से काम करने या मजदूरी करने के बाद सीधे यहां आते हैं और पढ़ाई करने लग जाते हैं। पिछले एक साल के दौरान इससे काफी हद तक लोगों की सोच बदली है। बच्चों के पेरेंट्स अब खुद पढ़ने के साथ ही अपने बच्चों को भी पढ़ाई के लिए आगे बढ़ा रहे हैं।
किसी से मदद नहीं मिली, खुद के दम पर ही चला रहे हैं मुहिम
दीप नारायण कहते हैं कि मेरी इस मुहिम की हर जगह तारीफ हो रही है। पश्चिम बंगाल ही नहीं बल्कि दुनिया के कई मीडिया और अखबारों में हमारी खबर छपी। हालांकि, अभी तक फाइनेंशियल लेवल पर मुझे कोई खास सपोर्ट नहीं मिला है। मैं जो कुछ भी कर रहा हूं वो खुद के पैसे कर रहा हूं और आगे भी करता रहूंगा। सच यह भी है कि ऐसे काम खुद की प्रेरणा से ही होने चाहिए। हम किसी पर निर्भर होकर इस तरह के काम नहीं कर सकेंगे। आगे मेरी कोशिश है कि दूसरे जिलों में भी इस तरह की मुहिम शुरू करूं। ज्यादा से ज्यादा लोगों को इससे जोड़ूं।