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श्री कृष्ण से सीखें जीवन को सफल, सार्थक और यशस्वी बनाने के गुण, कृष्ण के जीवन सूत्र ही हैं लक्ष्य सिद्धि के कारगर मंत्र

3 years ago
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Learn the art of life from Shri Krishna He was rich in supernatural  personality

 

 

 

 

 

  • कृष्ण ने केवल कहा नहीं, अपने शब्दों को साकार करके भी दिखाया।
  • जैसे गीता के रूप में उनकी वाणी अनुकरणीय है, वैसे ही उनका जीवन भी।
  • कृष्ण ने सिखाया कि रिश्ते कैसे निभाए जाते हैं, अपने पूरे परिवेश को प्रेम से कैसे भरा जाता है और जीवन के उतार-चढ़ाव का सामना मुस्कराते हुए कैसे किया जाता है।
  • इस जन्माष्टमी, कृष्ण को पूजें और उन्हें अपने जीवन में उतारें भी।

महाभारत के महानायक भगवान श्रीकृष्ण मानव इतिहास में मनुष्यता के सबसे बड़े मार्गदर्शक हैं। उनका गीता-उपदेश जीवन प्रबंधन का अनुपम ग्रंथ है और उनका व्यक्तित्व-कृतित्व गीता की साकार और प्रेरक कसौटी। यदि हम प्रयास करें तो उनके जीवन से सीख लेकर पूरी 360 डिग्री पर अपने जीवन को सफल, सार्थक और उन्हीं की भांति यशस्वी बना सकते हैं। संसार की रणभूमि में अपने जीवन की महाभारत में जय के लिए कृष्ण के जीवन सूत्र ही लक्ष्य सिद्धि के कारगर मंत्र हैं।

सभी से प्रेम करने वाले

भगवान श्रीकृष्ण का जीवन प्रेम का पर्याय है। वे मां, पिता, भाई बलराम, सखा अर्जुन और गोपियों सहित प्रकृति मात्र, यहां तक कि पशु-पक्षियों से भी सदैव प्रेम करते हैं। कवि रसखान ने कृष्ण के प्रेम को अभिव्यक्त करते हुए लिखा है कि शेषनाग, गणेशजी, शिव, विष्णु और इंद्र जिनकी महिमा का निरंतर गान करते हुए जिन्हें अनादि, अनंत, अखण्ड, अछेद व अभेद्य बताते हैं; वेद से नारद तक और शुकदेव से व्यास तक सारे ज्ञानी और साधक जिनके स्वरूप को जानने का प्रयत्न करते रहते हैं मगर जान नहीं पाते; ऐसे परम परमात्मा जब मानव रूप में श्रीकृष्ण अवतार ग्रहण करते हैं तो ग्राम्य बालाएं महज़ एक दोना भर छाछ के बदले उनसे नाच नचवाती हैं और ‘प्रेम’ के वशीभूत कृष्ण उनके समक्ष नाचने लगते हैं।

श्री कृष्ण सिखाते हैं… निश्छल प्रेम हर क्षण को सुख से भर देता है और पशु-पक्षियों सहित पूरे परिवेश को आनंदमय कर देता है।

हर समय मुस्कराने वाले

श्रीकृष्ण का समूचा जीवन संकट, संघर्ष और चुनौतियों की कथा है। उनका जन्म कंस के कारागार में हुआ। जैसे-तैसे नवजात कृष्ण सुरक्षित गोकुल पहुंचाए गए मगर बड़े होने तक पूतना सहित अनेक राक्षसों ने उन पर घात लगाई। जरासंध के भय से उन्हें कुटुंब सहित मथुरा छोड़ द्वारका बसानी पड़ी। महाभारत का युद्ध हुआ जिसमें उनकी इकलौती बहन सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु की निर्मम हत्या हो गई। गांधारी ने कृष्ण को उनके कुलनाश का शाप दिया और कृष्ण की आंखों के सामने उनका सारा कुटुंब आपस में लड़कर मर गया। मतलब आदि से अंत तक बहुत कुछ अप्रिय व कष्टदायक घटा। बावजूद इसके कृष्ण की आंखों से कभी आंसू न निकले। हर प्रतिकूल परिस्थिति में कृष्ण सदैव मुस्कराते ही रहे। ईश्वर होकर भी साक्षी भाव से द्रष्टा बने सब स्वीकारते हुए सहज बने रहे।

श्री कृष्ण सिखाते हैं… जीवन में कितनी भी प्रतिकूल परिस्थिति क्यों न हो, उसका मुकाबला मुस्कराते हुए ही करना चाहिए।

स्त्रियों के कृतज्ञ और रक्षक

श्रीकृष्ण स्त्रियों को मान देने व उनकी रक्षा करने में सदैव अग्रणी हैं। श्रीमद्‌भागवत पुराण के रासपंचाध्यायी में निर्मल प्रेम के लिए वे गोपियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं तो जन्मदात्री मां देवकी के साथ ही पालन करने वाली यशोदा की कृपा को पल-पल सादर बखानते हैं। वे भीम को प्रेरित कर स्त्रियों को बंदी बनाए रखने वाले जरासंध का वध कराकर बंदी स्त्रियों को मुक्त कराते हैं। सखी द्रौपदी के मान की रक्षा के लिए चीर बढ़ाने का चमत्कार करते हैं तो अपने भांजे अभिमन्यु की मृत्यु के बाद उसकी विधवा उत्तरा का दुख दूर करने के लिए उसके मृत जन्मे पुत्र परीक्षित को पुनर्जीवित कर देते हैं। गुरु सांदीपनि की पत्नी की आज्ञा पर खोए हुए गुरुपुत्र को वापस लाकर ‘गुरुदक्षिणा’ अर्पित करते हैं और क्रोधित गांधारी के कुलनाश सम्बंधी शाप को भी सिर झुकाकर स्वीकार लेते हैं। इसलिए कि कृष्ण स्त्री की महिमा को जानते और मानते हैं।

श्री कृष्ण सिखाते हैं… जिस समाज में स्त्री का सम्मान और उसकी रक्षा होती है, वही मंगलमय उन्नति कर पाता है।

अच्छे और सच्चे मित्र

दीनबंधु दीनानाथ श्रीकृष्ण यूं तो सबके मित्र हैं लेकिन उनके जीवन में तीन मित्र अर्जुन, उद्धव व सुदामा की मैत्री जगप्रसिद्ध है। सुदामा गुरुकुल का मित्र है, उद्धव तरुणाई के और अर्जुन द्रौपदी स्वयंवर की पहली मुलाक़ात के बाद अंतिम सांस तक का। श्रीमद्‌भागवत की कथाएं साक्षी हैं कि गुरुकुल में सुदामा के मुट्‌ठी भर अन्न को कृष्ण ने किस तरह कृतज्ञता पूर्वक याद रखा और द्वारकाधीश बनने के बाद सुदामा को धनधान्य देकर किस प्रकार मैत्री का ऋण चुकाया। ज्ञान के अहंकार में डूबे उद्धव को प्रेम का पाठ पढ़ाने गोपियों के पास भेजा। अर्जुन से अपने अनन्य प्रेम में कृष्ण, इंद्र से भिड़ गए और खांडववन को जलने दिया। पहले शांतिदूत बनकर कौरव सभा में गए फिर ईश्वर होकर भी महायुद्ध में मित्र के सारथी, संरक्षक व मार्गदर्शक बने। मित्र कर्मपथ से विचलित हुआ तो गीता का उपदेश दिया और युद्ध में विजय के बाद मित्र कहीं अहंकारी न हो जाए, इसलिए युद्ध के बाद ‘अनुगीता’ सुनाई।

श्री कृष्ण सिखाते हैं… संकट में मित्र की सहायता करो, भ्रम में मार्गदर्शन और आवश्यकता पर सहयोग। यह सब नि:स्वार्थ हो और कर्ता भाव से रहित हो तभी सच्ची मित्रता है।

सफलता के लिए पांच मंत्र

प्रमाणों के अनुसार कृष्ण इस धरती पर 125 वर्ष रहे।

इतनी दीर्घायु में उन्होंने विनम्रता से सिद्धि, कठोर परिश्रम, समयानुकूल नीति, सज्जनों का उत्थान और दुष्टों को दण्ड- ये पांच मूल मंत्र अपने व्यक्तित्व व कृतित्व के ज़रिए दिए।

विनम्रता व सेवाभाव से गुरु सांदीपनि को प्रसन्न कर मात्र 64 दिनों में उन्होंने शिक्षा पाई और विनम्रता से ही जग को जीता। कठोर श्रम से उन्होंने द्वारका बसाई। कृष्ण-सा नीतिज्ञ मनुष्यता के इतिहास में दुर्लभ है। जब जरासंध से लड़ना संभव न था तब द्वारका की राह ली और भीम का बल पाते ही उसे मरवा दिया। पाण्डवों की भांति दुर्योधन भी उनका सम्बंधी था मगर उसके अधर्म की राह पर होने से कृष्ण ने धर्मपथिक पाण्डवों की सहायता कर सज्जनों के उत्थान का संदेश दिया। कृष्ण परम क्षमाशील हैं किंतु दुष्टों को दण्ड देने में संकोच और विलम्ब नहीं करते। बचपन में अनेक राक्षसों के वध के अलावा कंस, शिशुपाल, शाल्व से लेकर उनकी प्रेरणा से किए गए दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण व शकुनि के वध उनकी इसी कल्याणकारी दण्ड नीति के उदाहरण हैं।

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